MA Semester-1 Sociology paper-III - Social Stratification and Mobility - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता - सरल प्रश्नोत्तर समूह
लोगों की राय

बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।

अथवा
जाति प्रथा की उत्पत्ति के सिद्धान्तों को संक्षेप में बताइये।

उत्तर -

भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति

भारत में जाति-व्यवस्था अत्यधिक जटिल रूप में है तथा समाजशास्त्रियों के लिये यह बड़ी जिज्ञासा का प्रश्न रहा है कि इसकी उत्पत्ति कब और किन दशाओं में हुई है ? प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में जो उल्लेख मिलता है उसके अनुसार यह निष्कर्ष निकलता है कि इसकी उत्पत्ति का आधार प्रचलित दन्त कथायें हैं। इन दन्त कथाओं के प्रचारक कौन थे और उनकी रचनाओं का क्या आधार रहा है इसका कोई उत्तर नहीं मिलता है।

जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं, जिनमें से प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) परम्परागत सिद्धान्त (Traditional Theory ) – यह जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का सबसे पुराना सिद्धान्त कहा जा सकता है तथा सर्वसाधारण भारतीय इसे ही उत्पत्ति का आधार मानते हैं। भारतवर्ष का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद में इसका प्रतिपादन किया गया है और इसे आलौकिक विश्वास के साथ जोड़ दिया गया है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में मिलता है, परन्तु इससे इसकी उत्पत्ति के कारण पर प्रकाश नहीं पड़ता, परन्तु यह इस दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसकी पौराणिक कल्पना इतनी प्रभावशाली रही है कि किसी भी युग में किसी भी हिन्दू ने इसके बारे में कोई शंका प्रकट नहीं की है। मनु ने भी अपने धर्मशास्त्र में पूर्णरूपेण इसे स्वीकार किया है। इस सूक्त में भी कहा गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जाँघ से वैश्य और पाँव से शूद्र पैदा हुये हैं। तैतिरीय ब्राह्मण में लिखा है कि वेदों से ही वर्णों की उत्पत्ति हुई है। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि देवताओं और असुरों से वर्ण की उत्पत्ति हुई है। उपनिषदों में कहा गया है कि वर्षों की उत्पत्ति सामाजिक कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न कार्य करने के लिये हुई है। आरम्भ में केवल ब्राह्मण था। उसने पहले ब्राह्मण उत्पन्न किये। जब उससे कार्य करने में सफलता नहीं हुई तो क्षत्रिय पैदा किये और शेष कार्यों के लिये वैश्य और शूद्र पैदा किये। मनु धर्मशास्त्र में मनु ने ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का ही आधार लिया है और उपजातियों के निर्माण के सम्बन्ध में मत दिया है कि ये वर्ण संकरता के कारण बनीं, अर्थात् ज्यों-ज्यों वर्णों का मिश्रण होता गया नई उपजातियाँ बनती चली गईं। महाभारत के शान्ति पर्व में उल्लेख मिलता है कि चारों जातियाँ कृष्ण से पैदा हुईं। कृष्ण ने उत्तम सौ ब्राह्मणों को मुख से, सौ क्षत्रियों को अपनी भुजाओं से, सौ वैश्यों को जाँघों से, सौ शूद्रों को अपने चरणों से उत्पन्न किया। भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि गुण और कर्मों के आधार पर मैंने ही लोगों को चार जातियों में बाँट दिया है। प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में इस प्रकार की कितनी ही पौराणिक कहानियाँ मिलती हैं। डॉ० म्योर ने विभिन्न ग्रन्थों से जाति की उत्पत्ति की कहानियों का 152 पृष्ठों में संकलन किया है। मूल संस्कृत पाठ में भी सैकड़ों, कहानियाँ संग्रहीत हैं। इन विभिन्नताओं को दृष्टि में रखकर टूबनर ने वैदिक युग में जाति-प्रथा के अस्तित्व के प्रति शंका प्रकट की है।

आलोचना (Criticism ) - परम्परागत सिद्धान्त की आलोचना मुख्यतः निम्न आधारों पर की गई है -

(i) यह सिद्धान्त केवल अटकलबाजी पर निर्भर है, क्योंकि कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है। यह सिद्धान्त वैज्ञानिक आधारों पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस वैज्ञानिक युग में ब्रह्मा से जाति की उत्पत्ति मानना अविश्वसनीय है।
(ii) वर्ण संस्कारों से उपजातियों का निर्माण भी सत्य नहीं कहा जा सकता। नयी जातियों की उत्पत्ति में अनेक कारणों का योग है, केवल संकरता ही आधार नहीं है। साथ ही यह सिद्धान्त इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि एक ही वर्ण में विभिन्न जातियाँ तथा उपजातियाँ क्यों पायी जाती हैं।
(iii) यह सिद्धान्त वर्ण और जाति में भ्रम पैदा करता है। समाजशास्त्री मानते हैं कि वर्ण और जाति पृथक्-पृथक् धारायें हैं। यह उत्पत्ति का सिद्धान्त हो सकता है जाति का नहीं। इस प्रकार इसे जाति की उत्पत्ति का आधार कैसे माना जा सकता है।
(iv) जाति के विभाजन का वास्तविक आधार जन्म है या कर्म ? क्योंकि हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में इसका उल्लेख हुआ है और परस्पर विरोधी व्याख्यायें दी गई हैं। यह सिद्धान्त केवल कुछ सीमा तक उसके ऐतिहासिक क्रम पर ही प्रकाश डाल पाया है। सही अर्थों में इसे उत्पत्ति का सिद्धान्त नहीं स्वीकारा जा सकता।
(v) यदि सभी जातियाँ एक ही शक्ति की देन हैं तो उनमें इतना अन्तर कैसे पैदा हुआ ? अन्तर की यह बात आनुवांशिक सिद्धान्त के विपरीत है। साथ ही इतनी जटिल और कठोर रचना केवल, एक व्यक्ति या शक्ति के बस की बात नहीं हो सकती।

(2) ब्राह्मणवादी अथवा ब्राह्मणों की चतुर युक्ति का सिद्धान्त (Brahminical or theory of Clever Device of Brahmins) - शुरू के योरोपीय अध्ययन कर्त्ताओं ने जाति-प्रथा को ब्राह्मणों की चतुरतापूर्ण बनाई गई एक योजना माना है। इसके प्रवर्तकों में आबे डुबायस (Abbe Dubois) प्रमुख हैं। आपकी मान्यता है कि जाति-प्रथा ब्राह्मणों द्वारा अपने लिये बनाई गई एक राजनीतिक योजना मात्र है। इन्होंने अपनी उच्च स्थिति और सत्ता को सदैव के लिये स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से इसकी रचना की है। सूक्ष्म दृष्टि से यदि हम देखें तो पाते हैं कि जाति व्यवस्था धर्म पर आधारित है और सम्पूर्ण रूप से धर्म का निर्वाह करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है। इस प्रकार उन्होंने अपनी प्रभुता बनाये रखने के लिये धर्म का सहारा लेकर समाज को जाति के रूप में विभक्त किया और सर्वोच्च स्थान पर खुद को प्रतिष्ठित किया। इतना ही नहीं, उन्होंने दूसरे स्थान पर क्षत्रियों को रखा जो अपनी शारीरिक शक्ति के माध्यम से ब्राह्मणों की रक्षा कर सकें। डुबायस का मत है कि ब्राह्मणों ने अपनी सामाजिक स्थिति का लाभ उठाकर यह सिद्ध किया कि वे सर्वश्रेष्ठ हैं और उस धर्म का आधार सदैव के लिये स्थायी कर दिया।

डॉ० घुरिये ने भी इस सिद्धान्त को माना है यद्यपि उन्होंने साथ ही साथ प्रजातीय आधार को भी लिया है। इसकी मान्यता है कि जाति प्रथा इण्डो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों की उपज है। ये लोग रोमन संस्कृति से बहुत प्रभावित थे और इन्होंने रोमन संस्कृति की समस्त विशेषताओं को जिनके अन्तर्गत संभ्रांत व्यक्तियों के बीच भेद, कर्मकाण्डों की पवित्रता, कुलीन वर्ग द्वारा सम्पूर्ण अधिकारों पर नियंत्रण तथा अन्य वर्गों से दासों सा व्यवहार आदि विशेषताओं को आर्यों ने स्वीकार कर लिया। उनका मत है कि आर्यों ने जब भारत के मूल निवासी द्रविड़ों को परास्त किया तो उन्हीं विशेषताओं के आधार पर खुद को द्विज माना और द्रविड़ों को दास और शूद्र कहना प्रारम्भ कर दिया और बाद में अपने को अलौकिक अधिकारों से युक्त बताने के लिये स्वयं को ब्रह्मा का प्रतिरूप ( ब्राह्मण) कहने लगे तथा अन्तर्विवाह और कुलीन विवाह और कर्मकाण्डों के द्वारा द्रविणों से प्रजातीय मिश्रण रोकने का प्रयास किया। घुरिये का मत है कि जाति-व्यवस्था के सभी निषेध इसी के परिणाम हैं। नानी और भोजन सम्बन्धी निषेध दूसरे चरण में शुरू हुये। दक्षिणी भारत में इन प्रतिबन्धों का रूप अधिक जटिल रहा है।

आलोचना (Criticism) – यह सिद्धान्त मूलतः इस बात को प्रमाणित करता है कि ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च क्योंकर हुई, लेकिन जाति प्रथा को उत्पत्ति का यह एक मात्र आधार नहीं माना जा सकता। प्रजातीय अलगाव की भावना भी इस सिद्धान्त से स्पष्ट होती है, परन्तु जाति केवल इण्डो-आर्यन संस्कृति के प्रसार का परिणाम है, यह बात भी नहीं मानी जा सकती। यह भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण संस्था है, केवल सांस्कृतिक आधार पर इसे समझना गलत होगा। इस सिद्धान्त से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण और शूद्र जातियाँ कैसे बनीं, लेकिन अन्य जाति व उपजातियाँ कैसे अस्तित्व में आईं इस पर कोई सिद्धान्त प्रकाश नहीं डालता है।

यदि यह मान लिया जाये कि जाति ब्राह्मणों की एक सुनियोजित योजना का परिणाम है तो भी हजारों वर्षों में यह उसी प्रकार महत्वपूर्ण कैसे बनी रह गई, जबकि ब्राह्मणों के खिलाफ कई आन्दोलन भी हुए हैं। साथ ही इनका अस्तित्व उन जगहों पर उसी प्रकार है जहाँ ब्राह्मणों का कोई प्रभाव नहीं है। इसलिये भी इसे अप्रमाणित कहा जा सकता है।

(3) प्रजातीय सिद्धान्त (Racial Theory) - भारतीय जाति प्रथा के उत्पत्ति विषयक अध्ययन में सर हर्बर्ट रिजले का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने ही प्रजातीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक दी पीपुल्स ऑफ इण्डिया में किया है। प्रायः पाश्चात्य विद्वान् इस सिद्धान्त से सहमत हैं। मैक्स वेबर, मैकाइवर एवं पेज और क्रोबर तथा भारतीय विद्वान् राय, दत्ता, घुरिये, मजूमदार आदि ने इसे स्वीकार किया है।

रिजले के अनुसार भारतीय जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति में 6 कारण प्रमुख रहे हैं जो इस प्रकार हैं -

(i) प्रजातीय सम्पर्क,
(ii) प्रजातीय सम्पर्क से उत्पन्न वर्णसंकरता,
(iii) वर्ण-भेद भावना,
(iv) मूल निवासियों की एक सम्पूर्ण वन्य जाति जो हिन्दू धर्म की श्रेणी में वन जातीय उपनाम या नयी जाति के नाम के साथ प्रविष्ट हो गये हैं,
(v) देशान्तर गमन से बनी जातियाँ, तथा
(vi) रीति में परिवर्तन से पैदा हुई जातियाँ।

रिजले की मान्यता है कि जाति भारत में शुरू से ही नहीं थी, वरन् इसका प्रारम्भ आर्यों के आगमन के बाद हुआ और यह अनुलोम और कुलीन विवाह प्रथा के कारण अस्तित्व में आई। विजित और विजेता जो सामाजिक दूरी अपनाते हैं फलस्वरूप जो वर्ण संकरता उत्पन्न होती है तो नये समूह का निर्माण होता है। यही भारतीय जाति-व्यवस्था का भी आधार रहा है।

डॉ० मजूमदार तथा डॉ० घुरिये भी रिजले के मत से सहमत हैं। उनका मत है कि ऊँच-नीच की धारणा और उपजातियों के निर्माण की प्रक्रिया प्रजातीय कारणों से ही है। उन्होंने स्वीकार किया है कि भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व ही उससे सामाजिक विभाजन का स्पष्ट रूप मौजूद था।

आलोचना (Criticism - जाति प्रथा के सम्बन्ध में प्रजातीय विषयक अध्ययन,, प्रजातीय मिश्रण एवं प्रजातीय विशुद्धता की धारणाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, लेकिन एक मात्र इसी धारणा के आधार पर इसकी उत्पत्ति का निष्कर्ष न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वास्तव में इस प्रथा की उत्पत्ति में अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान, रहा है। इस सिद्धान्त की एक कमी यह है कि आर्यों के भारत में आने के पूर्व ही त्रिवर्ग का विभाजन रहा है, परन्तु इस विभाजन का कोई कारण और प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है। यह सिद्धान्त यह भी स्पष्ट नहीं करता कि विभिन्न जातियों के व्यवसाय क्यों भिन्न-भिन्न हुए और साथ ही विभिन्न जातियों के बीच खान-पान और छुआछूत आदि के प्रतिबन्ध कैसे लगे? इस तरह यह सिद्धान्त विकास के अन्य पक्षों की अवहेलना करता है।

इस सिद्धान्त के प्रमुख आलोचक हट्टन महोदय रहे हैं। उसके अनुसार, "प्रजातीय सम्पर्क केवल भारत में ही नहीं वरन् संसार के अन्य समाजों में भी हुआ है, किन्तु अन्य किसी भी समाज में जाति प्रथा अस्तित्व में नहीं आई। इससे स्पष्ट होता है कि प्रजाति के साथ अन्य कारक भी क्रियाशील रहे हैं जिनसे कि जाति अस्तित्व में आई।
-
(4) व्यावसायिक सिद्धान्त (Occupational Theory ) – भारतीय जाति-व्यवस्था में प्रायः यह विशेषता देखने को मिलती है कि प्रत्येक जाति और उपजाति के साथ विशेष व्यवसाय भी संलग्न है। इस आधार पर नेसफील्ड महोदय ने व्यावसायिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। दहलमन्न और ब्लण्ट महोदय ने इसका समर्थन किया है। सफील्ड का कथन है कि "कर्म (कार्य) और केवल कर्म ही जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी है।” उन्होंने प्रजातीय भिन्नता को महत्वहीन बताते हुए कहा है कि जाति के अस्तित्व के हजार वर्ष पूर्व ही इतना प्रजातीय मिश्रण हो चुका था कि उसमें विभाजन करना असम्भव था। ब्राह्मणवादी विचार भी कोई स्थान नहीं रखता, वरन् जाति प्रथा की उत्पत्ति का एक मात्र कारण समाज में व्यावसायिक विभाजन रहा है। आपके अनुसार पेशा ही सामाजिक अलगाव का कारण है और उसी ने ऊँच-नीच की भावना भी पैदा की है तथा इस भावना के पहले चरण में ही छुआछूत भी प्रारम्भ हो गई थी। नेसफील्ड ने विस्तृत विवेचना करते हुए कहा है, " आरम्भ में सभी लोग किसी भी व्यवसाय को कर सकते थे, कालान्तर में धार्मिक कार्य और यज्ञ कर्म इतने जटिल हो गये कि उन्हें सम्पादित करने के लिये विशेष ज्ञान की जरूरत पड़ी। सामाजिक जीवन में धर्म का अधिक महत्व होने के कारण जो उन्हें सम्पादित करते थे, वे सर्वोच्च प्रतिष्ठित हुए तथा ब्राह्मण कहे जाने लगे, प्रशासनिक कार्य को दूसरा स्थान मिला वे क्षत्रिय हुए। व्यापार और आर्थिक क्रिया करने वाला वर्ग वैश्य हुआ। " नेसफील्ड ने निष्कर्ष दिया है कि, "जाति समाज की प्राकृतिक उपज है जिसके निर्माण में धर्म का कोई भी हाथ या महत्व नहीं रहा है। "

आलोचना (Criticism ) - यद्यपि नेसफील्ड महोदय का यह सिद्धान्त काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन एकमात्र पेशे के आधार पर ही जाति व्यवस्था को नहीं समझा जा सकता। हट्टन ने आलोचना में कहा है कि यदि व्यवसाय ही जाति का निर्धारण करता है तो कृषि में संलग्न लोग एक ही जाति के होने चाहियें पर ऐसा नहीं है। साथ ही ऊँच-नीच और छुआछूत की जो व्यवस्था है यदि उसका आधार व्यवसाय है तो ब्राह्मण जो कृषि के कार्य में लगे हुए हैं उन्हें सामाजिक दृष्टि से ऊँची स्थिति क्यों प्राप्त है ? वैसे भी दक्षिण भारत में कृषि करने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति उत्तर भारत से उन व्यवसाय के लोगों में निम्न है। अतः यह स्पष्ट नहीं होता कि एक ही व्यवसाय में संलग्न लोगों की सामाजिक स्थिति में अन्तर क्यों है?

यह बात भी पूरी तरह से मानी जा सकती है कि जाति-व्यवस्था पर धर्म का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि जाति के अधिकाधिक प्रतिबन्धों का आधार धार्मिक है, व्यावसायिक नहीं। साथ ही यह सिद्धान्त शूद्र या निम्न जातियों की उत्पत्ति पर कोई प्रकाश नहीं डालता। यद्यपि व्यवसाय का अपना महत्व होता है, परन्तु उसके आधार पर ऊँच-नीच का भेद-भाव कैसे हो सकता है, यह इस सिद्धान्त द्वारा स्पष्ट नहीं होता।

यह सिद्धान्त प्रजातीय तत्वों की पूर्णतः उपेक्षा करता है। मजूमदार ने लिखा है, " सम्भव है कि उच्च जातियों में ज्यादा प्रजातीय अन्तर न हो, एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले
समूह में ज्यादा शारीरिक भिन्नतायें भी न हों, एक भौगोलिक उच्च तथा निम्न जातियों में कुछ प्रजातीय अन्तर अवश्य देखने को मिलता है। यह बात इस देश में रहने वाले और इस देश को जानने वाले को स्पष्ट मालूम है।" इस तरह जाति की उत्पत्ति केवल प्रजातीय आधार पर नहीं समझी जा सकती।

(5) धार्मिक सिद्धान्त (Religious Theory ) - इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक होकार्ट और सेनार्ट महोदय रहे हैं। सामान्य रूप से इन विचारकों का मत रहा है कि जाति प्रथा का जन्म धर्म और उसके विभिन्न कृत्यों के कारण हुआ है। होकार्ट का मत है कि पहले राजाओं का स्थान समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित होता था। उन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता था। वे धार्मिक क्रियाओं में आगे रहते थे तथा समस्त कार्यों के लिये अलग-अलग व्यक्ति होते थे जो उन कार्यों को सम्पादित करते थे। इस तरह धार्मिक कार्यों की विभिन्नता के आधार पर ही जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई है अर्थात् चतुर धर्मज्ञ राजाओं ने ही ऐसे समाज की रचना की। इसमें ब्राह्मण चूँकि ज्ञानी थे अतः उन्हें त्याग का स्थान देकर समाज से अलग कर दिया और अपनी पूजा करवाई। (कृष्ण और राम की पूजा जो क्षत्रिय थे) इसके उदाहरण हैं। होकार्ट मानते हैं कि सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति धार्मिक क्रियाओं और कर्म-काण्डों से सम्बन्धित है। कर्म-काण्डों की क्रियायें पवित्रता के आधार पर उच्च और निम्न स्तरों में विभाजित होती हैं तथा प्रत्येक क्रिया के लिये कुछ विशेष व्यक्तियों की जरूरत पड़ती है वे मानते हैं कि प्रारम्भ से ही चारों वर्णों का विभाजन धार्मिक क्रियाओं को पूर्ण करने के उद्देश्य से हुआ है।

सेनार्ट
ने माना है कि पितृ पूजा के द्वारा जाति बनी हैं तथा भोजन प्रतिबन्धों का भी इसमें योगदान रहा है। इनकी मान्यता है कि मातृ-पूजा के ही कारण वैवाहिक व भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्ध लागू हुये हैं। इसी तरह एक ही पितृ पूजन करने वाले लोग जाति में परिवर्तित हो गये। सेनार्ट महोदय ने अपना पूरा ध्यान भोजन, विवाह और सामाजिक सहवास पर केन्द्रित किया है तथा निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति की पूर्णतया पितृ पूजा और परिवार में भोजन सम्बन्धी निषेधों पर आधारित है। उनकी मान्यता है कि पितृ-पूजा भारत में आर्यों के आक्रमण के बाद प्रजातीय मिश्रण बढ़ने के कारण शुद्धता का स्तर दो भागों में बँट गया। एक वंश-परम्परा के आधार पर और दूसरा परम्परागत व्यवसाय के आधार पर तथा दोनों परिस्थितियों के बीच अनेक समूह बन गये। ये विभिन्न कुल देवताओं पर विश्वास करने वाले तथा व्यावसायिक विभिन्नता के लोग थे। इसमें पुरोहित सर्वाधिक संगठित थे। अतः इन्होंने नैतिक शक्ति के दबाव के कारण सर्वोच्च स्थान पाया। इस तरह धर्म के आधार पर ही समाज समूहों में बँटा और धार्मिक पवित्रता के आधार पर विशेष सामाजिक स्थिति उन्हें प्राप्त हुई।

आलोचना (Criticism ) - धार्मिक सिद्धान्त की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें दी गई व्याख्या ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी नहीं उतरती। केवल धार्मिक आधार पर ही जाति को नहीं समझा जा सकता। यह सामाजिक संस्तरण की व्यवस्था है तथा केवल धर्म और कर्मकाण्डों से ही सम्बन्धित नहीं है। यह सिद्धान्त यह भी स्पष्ट नहीं कर पाता कि सामाजिक सम्मिलित, खानपान और अन्तर्जातीय विवाहों के निषेधों के क्या कारण हैं तथा केवल कुल देवता के आधार पर इस जटिल व्यवस्था को नहीं समझा जा सकता। हट्टन ने कहा है कि यह सिद्धान्त भ्रमपूर्ण तो है ही, साथ ही साथ इस व्यवस्था के भौतिक प्रारूप से भी भिन्न है।

होकार्ट
ने बलि चढ़ाने के कृत्य पर ज्यादा जोर दिया है। पर यह मानना बड़ा कठिन है कि समूची जाति-व्यवस्था केवल धर्म के एक अंग बलि के आधार पर कैसे सम्भव हो सकती है अर्थात् इसकी उत्पत्ति केवल धर्म के आधार पर समझना भूल होगी। सेनार्ट ने कुल देवता की पूजा के आधार पर जाति को इतना सरल रूप दे दिया है कि उसमें वैज्ञानिकता नहीं रह गई है। वास्तव में जाति प्रथा की उत्पत्ति में प्रजातीय व्यवसाय आदि तत्वों को पूर्णतः नकारना भूल होगी। साथ ही सेनार्ट यह भी नहीं बता पाते कि शूद्र कैसे पैदा हुये, उनके बहिर्जातीय विवाह के सिद्धान्त को जाति व्यवस्था का आधार नहीं माना जा सकता।

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book